Monday, December 2, 2013

अस्तित्व कवित्री का...


मैं सोचने बैठी हूँ,
खुद के लिए नहीं,
अन्यथा विषय छटक जायेगा,
अनुराग यदि स्वयं से किया,
अर्थ बदल जायेगा,
यदि तुम्हारी मंशाओं को दिशा न दी,
तर्क भटक जाएगा,

गति आ गयी है विचारो में,
हर ओर भागता है,
ऊँचे पर्वतो से दुनियाँ देखता है,
कभी सड़क के बीच आकर.......

नदी के मुहाने बैठ पानी को चोटिल करता है,
कभी उसी पानी को पीने लगता है,
फैलते हुए अनैतिकता कि गंध,
कभी एकदम से दम घोट देती है,
कभी कण मात्र उपयुक्त देख,
सन्दर्भ मिलता यापन का,

आभास होता है कई बार,
पराजित हूँ मैं,
चोटिल हूँ मैं,
इसी भीड़ ने कुचला है मुझे,
कुंठा स्थान पाने कि चेष्ठा करती है,

फूट पड़ती हुँ मैं,
किन्तु फिर मेरा अस्तित्व,
मुझे झकझोर देता है जगाता है,
अपने पलकों पे उठाता है,
व्यंग कसता है, पुचकारता है,
प्रस्तुत करता है आकस्मिकता का ब्यौरा
श्रेष्ठता का अनुभव करवाता है
जमघट से अलग कर,
खिन्नता को पुलकित करता है,

पुकारता है वाणी तेजस्वी
बोध और तेरे शब्द प्रेरणा,
रुकना तेरी विशिष्टता नही,
विराम हवाओ ने नही सीखा,
अतः तेरा कर्म सीख बन सीखती चल!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

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