Monday, December 2, 2013

जिज्ञासा


मुझे सोचना है बहुत देर तक,,
वो जो मैंने किया,,
वो जो मेरे साथ हुआ,,,
वो जो अब हो रहा है,,
और वो जो आगे भविष्य में होगा,,, 

मैं समझना चाहती हूँ उस सच को,,
जिसका दम भरते हैं लोग,,,
मेरा सच जानने को सब आतुर क्यूँ?
जबकि स्वयं सच बोलने में सक्षम नहीं,

 मैं जानना चाहती हूँ,
क्या यहाँ सब विधाता हैं?
और मैं केवल अपराधी,
इसलिए मेरे भूल के लिए सब दण्डित कर रहे हैं मुझे,,,

 
आज उत्सुक हूँ सब प्रश्न का उतर प्राप्त करने को,,
क्या ये बुद्धिजीविओ का समाज है?
केवल स्वार्थ कि भावना ही श्रेष्ठ है,,
क्या प्रेम,,, कहानिओं कि सीमा से बाहर नही?

मानवता लुप्त क्यूँ है?
अश्लीशता इतनी व्यापक क्यूँ?
आदर्श धुआं-धुआं हैं, 

पूछना है बहुत कुछ मुझे,
किन्तु जवाबदेही किसी कि नही,,
क्यूंकि यहाँ कुछ मस्त हैं,,
कुछ ने बदलाव का नाम देकर पल्ला झाड़ लिया,,

 

'श्लोक' का उत्तर आया
अभी तो सदी बाकी है,,
तू जी रही है जिंदगी बाकी है,,
यहाँ धूल झुंक गयी है हर आदमी कि आँख में,,
देखनी तुझे अभी और बेशर्मी बाकी है,, "

 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 2/11/2013

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