Monday, December 9, 2013

अंतर्द्वन्द

हालात बहुत बलवान हो गए हैं
या तो फिर मैं कमज़ोर
क्षितिज का सीना चौड़ा हो गया हैं
या फिर फ़िज़ा के तीखे हो गए हैं तेवर
मौसम बदल गया है
या इस शाख कि उम्र हो चली है
इस बूँद कि धमक ज्यादा है
या मैं ही खोखली हो गयी हूँ
अँधेरा ज्यादा डरावना है 
या मैं वहमी
पेंसिल घिस चुकी है
या कल्पनाओ का अंत हो गया है
तलवार जंगा गयी है  
या युद्ध जीता जा चुका है 
घड़ा टूट गया है या पानी नहीं है
आंसू कम हैं आँखों में
या फिर दर्द सहन कि सीमा से ज्यादा
सब ठण्ड में ठिठुर रहे हैं
आग बुझ चुकी है या फिर चिंगारी नहीं है
मुझे अब इस शहर में
सब धुंधला सा नज़र आ रहा है!
नज़र का नूर मद्धम है
या कोहरो कि आबादी घनी हो गयी है?
दीवार हिल रही है
भूडोल कि कंपन है
वजह या नींव धस गयी है
चौखटे पर आ खड़े हुए हैं
तमाम गहन.. गम्भीर... सवालात,
प्रश्न कि इक सीढ़ी चढ़ती
तो आसमान ठोकर मार ज़मीन में दाब देता,
सब विरोधी बन खड़े हैं
केवल प्रश्न हैं
पुते हुए गठियाये अक्षरो के साथ,,
शत-विक्षत मैं , मेरे जहन से शब्द गुम!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 9/12/13

1 comment:

  1. सब ठण्ड में ठिठुर रहे हैं

    आग बुझ चुकी है या फिर चिंगारी नहीं है

    मुझे इस शहर में सब धुंधला सा नज़र आ रहा है!

    नज़र का नूर मद्धम है या कोहरो कि आबादी घनी हो गयी है?

    दीवार हिल रही है

    भूडोल कि कंपन है वजह या नींव धस गयी है
    बहुत सुन्दर

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