Wednesday, January 8, 2014

मुझपे ही क्यूँ है आजमाइश सारी...

यूँ तो जिंदगी में कुछ नहीं मेरे निभाने को
गुज़ारिश तुझसे खुदा ये है बंद कर इस तराने को

खोया बहुत कुछ मैंने तेरे इस शहर में आकर
बाकी कुछ न रहा हसरतो में अब मेरे पाने को

दो गुल खिले थे बाग़ में वो पतझड़ ले झपटा
उसने भी खूब तलाशा बहाना मुझे छोड़ जाने को

अच्छा नहीं लगता मिज़ाज़ किसी भी आलम का
सन्नाटा खेद लेती हैं मुझे नोचकर कर खाने को

बनाने वाले बता मुझको मोम क्यूँ नहीं बनाया तूने
तब इक आग ही फाकी होती जिस्म मेरा पिघलाने को

मुझपे ही क्यूँ है लगातार ये तेरी आजमाइश सारी
ज़माना कम पड़ा क्या तुझको सबक हर दिन सिखाने को


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated :08/01/2014

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