Thursday, February 6, 2014

!! ग़ज़ल- जफा-ए-जुस्तज़ू-ए-मानूस !!

कौन से खुश लम्हे जिंदगी के गुनगुनाऊ मैं
करती हूँ कोशिश कि खुद को भी भूल जाऊं मैं

कहाँ से पुराने फटे हर हर्फ़ को फिर नया करूँ मैं
किस तरफ से लुटने कि दास्तान तुझे बया करूँ मैं

आ लगे ख्वाब के टुकड़े टूट कर मेरे ही सीने में
दर्द होता है बहुत बेमकसद बेवजह अब तो जीने में

क्या कहूं क्यूँ ये बेसुध सी बेसुर हुई शहनाई हैं
वफ़ा कि राह में बेहद चोट हमने भी खायी हैं

मौसम कि तरह इश्कवाले भी बदल जाते देखे
मुश्किलात में अक्सर ये बर्फ से गल जाते देखे

तेरी तलाश में मुकद्दर का फरेब सहती गयी मैं
रोई तन्हाई में फूटकर महफ़िल में हसती रही मैं

तू कवि है, शायर है या शख्स बेहद आम कोई
तू ही बता दे आज अपनी मुझे पहचान कोई

बड़ी शातिर है दुनियाँ अहमक बना के छलती गयी
तेरी हसरत में गिर-गिर उठी और संभलती गयी मैं

थी रोशन सा नूर चाँद का चहरे पे लिए मैं
वक़्त के तेवर को देख शाम बनके ढलती गयी मैं

बड़ी खुशमिज़ाज़ थी अपनी भी आदत इससे पहले 'श्लोक'
गम कि आंच में सुलगी और फिर जलती गयी मैं

अब इसके बाद न पूछो कि क्या मिला हमको
रह गयी बाकी साँसों से अपने बस गिला हमको

तेरे बिना जीत कैसी मैं शख्स भी तो सिर्फ हारी हूँ
खुदा के दर कि लुटी आरज़ू कि बेज़ार सवाली हूँ

इससे ज्यादा लव्ज़-ए-टीस तुमको क्या सुनाऊ मैं
दुआ करो कि इस कश्मकश से निकल जाऊं मैं



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'


 

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