Tuesday, February 11, 2014

"रोजाना देखती हूँ"


रोजाना देखती हूँ
डूबता हुई प्रेम नाव
असमंजस कि समुंद्री लहर में
क्षुब्ध सतहों कि चौकसी
उछाल देती है तेज़ी से
अपनी पड़ाव कि ओर आता देख
वैभव का सुनहरा दर्पण
टूट जाता है
अनेच्छिकता के बावज़ूद भी
संयोग के बट्टे से टकरा कर
बीनती रहती हूँ
उजाड़ मोके पर भी
रुई को लपेट कर
उम्मीद कि मोहक शाल
जीने कि कोशिश करती हूँ
इस हलाहल के उपरांत भी...
पतझड़ कि पीड़ादेह अवस्था में
झाड़ती हुई हैं पात कि भांति
गीले होंठो कि मुस्कराहट को
औऱ कई लकीरो में गढ़ जाती है
कुंठा माथे कि सपाट परत
विडम्बना घेर लेती हैं
किन्तु विश्वास काँधे पर लादे
पार करवाती रहती है
घायल करते झाड़ो से बीच से
कुछ खुरेचो के बाद भी
मरने नही देती मेरे अंदर कि
सबसे सुंदर भाव को
जो मुझे भिन्न करता है
हर तारतम्य से!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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