Wednesday, March 19, 2014

"औरत त्याग कि देवी"


मेरे औरत होने का दर्द
न मैं आँखों से दिखाती हूँ
न जुबान से बताती हूँ
मगर अक्सर सोचती हूँ
औरत होने का हश्र
मेरी व्यथा जो तकलीफ का
इक अध्याय तैयार कर देती है
मेरे अंदर ही दबे दबे
अंत के दरवाज़े पर
जा खड़ी होती है
सपने देखे हैं मैंने भी
लेकिन उससे ज्यादा देखा सपनो को 
टूटते हुए, बिखरते हुए
जलते हुए, सिकुड़ते हुए
मगर उर्फ़ करने के वक़्त
ख्याल आता रहा अपनों का
कभी बेटी बनके परिवार का
सम्मान बनाये रखने का भार
कभी बहन बन के जिम्मेदारियां उठाना
कभी पत्नी बनके सब निछावर कर देना
कभी माँ बनके सुख चैन अर्पण
इनसब के बीच वक़्त नही मिलता
खुद कि तकलीफ को
सहलाने और पुचकारने का
कैसा ह्रदय है मुझमे ?
और कितना सहन कर सकती हूँ ?
कभी-कभी आश्चर्य में डाल देते है सवाल
जवाब येही है कि औरत हूँ
और सहते रहना मेरे वज़ूद कि सच्चाई है
मुस्कराहट मेरी सादगी का चोला
जिसे पहनने के कारण
मेरे अपनों को आह के आंच से बचाना है
औरत जनम के साथ समर्पण
मेरे करम में लिख दिया गया है
सही है ये शायद कि
औरत के रूप में मैं त्याग कि देवी हूँ


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

No comments:

Post a Comment

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!