Tuesday, April 15, 2014

"कमी सी रही"




तू नहीं तो जिंदगी में
यूँ कमी सी रही
नदियां उलची गयी
मगर प्यासी जमीन सी रही
वो बात लिख के रक्खी हुई है
सीने में दफ़्न करके
जस्बात की साँसे
आज भी सब्र के पत्थरो में
दबी फसी सी रहीं
ये इंतज़ार हैं की
खत्म ही नही होती
अब रात चुप है और
चांदनी भी बुझी-बुझी सी रही
वक़्त ने धूल झौक कर
बहुत बुझाना चाहा लेकिन
ये मशाल आंधियो में भी
तेरे नाम से जली सी रही
सिहरन होती रही
हर साया डराता रहा
मगर हौसले की मुट्ठी
इसके बावजूद बंधी सी रही
कांटो ने फूलो की शक्ल ले गड़ाए शूल
मेरे लबो पे उस पल भी हसी सी रही..

बस इक बात सोचती हूँ तो
दर्द होता है मुझे भी
इतने फासले तो तय किये हैं मैंने
फिर भी क्यों ?
हमारे दरमियान इतनी दूरी सी रही !!!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'


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