Friday, April 25, 2014

!! रात ख्वाबो के छलावों ने संभलने न दिया !!

रात ख्वाबो के छलावों ने संभलने न दिया
सुबह पैरो के छालो ने चलने न दिया

जिंदगी की बदसलुखियाँ आस्मां तक थी
इक फूल भी इस चमन में खिलने न दिया

गर्म हवाओ के आग़ोश में था मैं मगर
तेरी खलिश ने मुझको पिघलने न दिया

या तो वो बेवफा है या फिर मैं बद्नसीब
किस वजह से इन फासलों ने मिलने न दिया

तेरे इंतज़ार में बैठा हूँ गहरे जख्म लिए
वक़्त के धागो से बरसो इसे सिलने न दिया

कैसे कोई ओर नगमा गुनगुनाता मैं भला
तेरी यादो ने अपनी गिरफ्त से निकलने न दिया

तेरे ख्याल से उभरा भी नहीं मैं आजतक
आवारा सोच कोई अपने जहन में पलने न दिया

कौन सा इम्तिहान बाकी है सफर-ए-इश्क़ का बता
दिल की दीवार पर इक छीटा तक पड़ने न दिया

मौत बड़ी देर दरवाज़ा खटखटा वापिस चली गयी
उन फरिश्तो को भी अपने घर में हलने न दिया

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

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