Monday, April 28, 2014

"तुम्हारी यादो से जूझती मैं"

नजाने क्यों सोचती हूँ तुम्हे
जबकि जानती हूँ की
इसका कोई अर्थ ही नहीं
फिर भी घिसती रहती हूँ
हर स्वाश तुम्हारी यादो के सिल पे

तुम ही बताओ...
क्या होता है ऐसा तुम्हारे साथ भी
अगर नहीं तो फिर क्यूँ
हर घड़ी मुझे
अपने गिरफ्त में रखते हो
दूर जाकर भी तुम
क्यूँ आज भी नज़रे
गाड़े हो की मैं तुम्हारी रहूँ

कभी कभी सोचती हूँ
तुम्हारी यादो की उंगली पकड़
उसे किसी मेले या भीड़-भाड़ में
ले जाकर छोड़ आऊँ
ताकि वो कोशिश के बावजूद भी
मुझतक न पहुँच सके
या फिर
किसी कमरे में जाकर
सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दूँ
उतार दूँ वहां से तुम्हारे ख्यालो के
हर कोने में फैले हुए जाले
जिसमे मैं मात्र
इक चींटी की तरह फसी हूँ
रख लूँ अपने हृदय पे
अनगिनत चट्टान
जिसके तहो के नीचे से
तुम्हारे लिए एहसास कुलबुला न सके
काट लूँ सारे रास्ते
जो मुझे तुमसे जोड़ते हैं 

नजाने क्यूँ ?
गाड़ती चली गयी तुम्हे इस तरह 
अपने मन के भीतर
और अनाहक में पाल बैठी बेहिसाब दर्द 
सच तो यही है
आज यूँ तुम्हे खुद में से पल-पल
निकालने की नाकाम कोशिश
मुझे जीवित तो रक्खे हैं
मगर लगातार समाप्त करती जा रही है



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

6 comments:

  1. कभी कभी सोचती हूँ
    तुम्हारी यादो की उंगली पकड़
    उसे किसी मेले या भीड़-भाड़ में
    ले जाकर छोड़ आऊँ ................सुन्दर रचना सब्दो में ढली हे

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  2. the more you want to forget the more you remember, bahat sundar Pari ji

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  3. अंत की पंक्तियाँ बेहद मर्मस्पर्शी हैं।


    सादर

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    1. स्वयं से निरंतर द्वंद्व करते रहने की मर्मान्तक व्यथा कथा ! बहुत ही सुन्दर रचना !

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