Wednesday, April 30, 2014

"आत्मा से साक्षात्कार"

 

मुझे लगा कि आसान है
भुला पाना वो स्वप्न
और मैं तमाम खुशियो के
लिए दरवाज़े खोलती चली गयी
इस बात से बेखबर कि
इन फूलो के तले हैं शूल के गुलदस्ते
दस्तक हुई हुजूम उमड़ा
और फिर से खास होने का
एहसास हुआ मुझे
लेकिन वो परछाईयाँ मात्र थी
उन्हें अंधेरो में विदा लेना ही पड़ा
मैं फिर वहीँ थी
जहाँ वेदना बेध रही थी मुझे
सैलाबों का रास्ता था
मेरे नरम गालो का हिस्सा
कब आता हैं एकाकी का अँधेरा रास
जब महफ़िलो कि रोशनी मुँह लग जाए
मैं जुदा थी लेकिन भीड़ मैं चलती गयी
छनती गयी उनकी तारीफों से
शायद! मैं नादान थी
या फिर इक धार से बहने वाला तिनका
बस बहाव चाहिए था चलने को
मगर इक दिन मेरा आइना सामने आया
वो बोलता गया मैं सुनती गयी
उसने कहा वो जो मैं सोच न सकी
मैंने ख़ामोशी से सर हिलाया
वक़्त लगा समझने में कि
मैं ज़मीन पे हूँ और
कुछ ज़मीनी काम बाकी है मेरे लिए
या यूँ कहो कि मुकाम अपनी
आँखे बिछाये मेरा रास्ता देख रही है
और अब मैं चल पड़ी हूँ
उस दिशा में
नेक परिवर्तन के लिए......!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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