Tuesday, April 8, 2014

"शर्मिंदा हूँ"

धुँआ धुँआ है ख्वाब मेरे
हकीकत है राख-राख से
औरत है हम बिन सवाल के
जलेंगे बात - बात पे

सन्नाटे हसके गुजरेंगे
लूक मुरझा देंगी अपने अंदाज़ पे
हम बोलेंगे तो इज्जत उछलेगी
लोग कहके लगा देंगे लगाम आवाज़ पे

कुछ हसरतें मैंने मिटा दी
कुछ लिए फिर रहे हैं रिश्ते बिसात से
मैंने तो कद्र सबकी कि
मगर सब खेलते रहे मेरे जस्बात से

आज कुछ सपने मैंने तोड़ दिए
कुछ रक्खे हुए हैं ताक पे
ये कसक जो जिन्दा है मुझमे
शायद जाकर मिटेगी आखिरी सांस पे


मै शर्मसार हूँ शर्मिंदा हूँ
कि शरीर के नाम पे आँखों में जिन्दा हूँ
न बुझ सकी न जला सकी ये नीयत
मैं भावुकता से कैद वो परिंदा हूँ !!!!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

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