Saturday, April 19, 2014

"उम्र के बढ़ते दौर ने"


क्या से क्या
बना दिया मुझे
उम्र के बढ़ते दौर ने
कुछ भी करने से पहले
कितनी गहरी विचार की
खायी में उतारना पड़ता है
गणित के सवालो की तरह
गुना-भाग करके
शेष क्या आएगा
उसके बिनाह पे होते हैं
आज फैसले
और
उनमे भी भय का सिरका
घुला होता है

जब मैं छोटी थी
तो सोचती थी की
अपने मन की करूँ
आज चाहती हूँ
सब सोच-समझ से करूँ
कहीं कोई बारीक सी
गलती भी न हो मुझसे

सच ! कभी-कभी
हैरान हो जाती हूँ मैं
अपने आपको ऐसा देख कर
जिसके खिलौने भी टूटते थे
तो वो पूरा आँगन
आंसुओ से भर देती थी
आज सपने टूटते हैं
और
वो उर्फ़ भी नहीं करती
झेल जाती है मुस्कुरा के सब

कभी-कभार तो
अपने ही दर्पण से
ये पूछने का मन हो जाता है
क्या मैं वही लड़की हूँ ?
जो बेफिक्र थी मस्तमौला थी

अगर हाँ !
तो फिर आज ये माथे पे
चिंता की अनगिनत लकीरे कैसे ?
जिसे किसी के सांत्वना की रबड़ भी 
मिटो नहीं पा रही हैं  !!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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